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Tag Archives: सब्र

Small Kid

एक छोटे बच्चे ने बहुत बड़ा सवाल किया आज, जिसका जवाब तो था मेरे पास बस मुश्किल यह थी कि उसे कैसे समझाऊं?

खैर! उसे तो उसके उम्र के हिसाब से जवाब देकर मैंने अभी के लिए संतुष्ट कर दिया और आगे के लिए वक्त पर छोड़ दिया। मैंने उसे कहा कि जब सुबह पापा ऑफिस जाते हैं और तुम उनके साथ जाने की जिद करते हो, तब वह तुम्हें अक्सर कहते हैं कि मैं शाम को तुम्हारे लिए चीज लाऊंगा, फिर तुम सुबह से शाम तक जिस तरह से उनकी राह देखते हो उसी को सब्र कहते हैं।

इससे ज्यादा और क्या कहती, क्योंकि उस छोटे बच्चे के लिए अभी इंतजार और सब्र जैसे भारी शब्दों की एक ही परिभाषा है। जैसे-जैसे बड़ा होगा अपने आप दोनों शब्दों को अलग कर पाएगा, सही अर्थ समझ पाएगा और सबसे अहम कि इनमें फर्क महसूस कर पाएगा।।

ठीक वैसे ही जैसे मैंने समझा। उस छोटे बच्चे की ही उम्र में मैंने भी किसी से यही सवाल किया था कि सब्र क्या होता है? लेकिन मुझे इसका जवाब देने वाला शख्स शायद यही चाहता था कि मैं जल्द ही समझ लूं कि सब्र दुनिया की कितनी बड़ी ताकत है। इसलिए उसने बिना छुपाए मुझे बताया कि जब तुम्हारी आंखें आंसुओं से भरी हो और दिल इस बात की गवाही दे रहा हो कि जो रब करता है वही बेहतर होता है।

इतने पर भी जब मैंने ना समझने जाने की बात कही तो मुझे समझाया गया कि जब तुम्हारी मां हर त्यौहार पर तुम्हें नए कपड़े दिला देती है और खुद उसी पुरानी साड़ी में त्यौहार मनाती है तो उसे सब्र कहते हैं। जब तुम्हारे पापा तुम्हें खिला कर खुद भूखे सो जाते हैं, तो वो सब्र हैं। जब गलती तुम्हारी ना हो लेकिन तुम्हारे पास अपनी सफाई में कुछ ना हो तुम्हारी आंखें आंसुओं से भरी हों और तुम आसमान की तरफ देख रहे हो, तो वह सब्र है।

उस दिन सच में समझ आ गया कि यह छोटा सा शब्द अंदर से कितना गहरा है, कितनी खामोशियों, कितनी सिसकियों कितनी घुटन को अपने अंदर समेटे हुए हैं। और फिर जैसे-जैसे बड़ी हुई, चीजें और साफ होती गई कि सब्र करना एक बहुत साहसी काम है। इसी क्रम में एक दिन एक बच्चे को देखा जो हलवाई की दुकान पर काम करता था, और सच कहूं यह कहने की हिम्मत नहीं है कि वह कितना सब्र करता है। मिठाई उसके सामने है पर वह खा नहीं सकता।

वह बूढ़े अंकल जो 80 की उम्र में रोज ठंड में ठिठुरते हुए ठेला लगाते हैं, कितना सब्र हैं उनमें वरना, इस उम्र में तो दिल और शरीर दोनों हार जाते हैं। एक औरत जिसके बच्चे हैं और उसका पति रोज शराब पीकर उसे मारता है, अपने बच्चों के लिए वह सब बर्दाश्त करती है। और सब्र का हाथ थामे अपने अच्छे दिनों की प्रतीक्षा में है।।

यह सब देखकर एक चीज और ज्यादा साफ हो गई कि सब्र शब्द भले ही खामोशियों, सिसकियों और दर्दों से भरा है लेकिन यह एक अंतिम छोर वाला सकारात्मक शब्द है। जिसके साथ जो भी इंसान जीना शुरू करता है, वह सचमुच जीने लगता है। अक्सर हम सुनते हैं कि ‘सब्र कर तेरा वक्त भी आएगा’ मतलब भविष्य में यह शब्द तुम्हारे लिए कुछ अच्छा लेकर आएगा। दूसरे शब्दों में कहूं तो सब्र वह कड़ी है जिसके सहारे हम अपनी जिंदगी के अंधेरों की दलदल से बाहर आ जाते हैं । मैंने सब्र को और सब्र करने वालों को बहुत करीब से महसूस किया और समझा है, लेकिन मैं फिर भी उस बच्चे को नहीं समझा पाई, क्योंकि यह समय उसकी जिंदगी को जीने का है ना कि जिंदगी को समझने का। और वैसे भी बड़ा होने दो, यह दुनिया इतनी जालिम है उसे खुद बा खुद सिखा देगी कि सब्र किसे कहते हैं?

फोटो सौजन्य- गूगल

लुबना

आज आपके लिए हम लेकर आए है सब्र की वो परिभाषा जो बचपन से सिखाई गई परिभाषा से बिल्कुल अलग है, बहुत कोशिश की जाती है बचपन से ही की हम थोड़े में जीना सीख जाए, अपने आपको को परिस्थितियों के हवाले कर दे, ये सिख जाए कि जितनी चादर हो उतने ही पर फैलाने चाहिए। लेकिन बचपन का भी एक उसूल होता है कि उस समय हमें जिस भी चीज के लिए मना किया जाए हमें वही करने में मज़ा आता है। अगर ये कहा गया है कि थोड़े में सब्र करो तो फिर हमें ज्यादा ही चाहिए होता है।

लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते जाते है जिंदगी कुछ और ही तय कर लेती है हमारे लिए वरना…

“जिस नज़ाकत से लहरें पैरों को छूती है

यकीन नहीं होता इन्होंने कश्तियां डूबाई होंगी।”

जी हां,  ज़िन्दगी में कुछ वाकया ऐसे ही होते है जिनपर यकीन करना बहुत मुश्किल होता है। कभी कभी ज़िन्दगी के हिस्से में आए बुरे दौर हमें अंदर तक झकझोर देते है जितना कभी हमारी मां-बाप के थपड़ों ने नहीं किया होता।

फिक्र में डूबी महिला

कुछ चीजें चाहे ना चाहे ऐसी हो जाती है जिससे हम बदलने लगते है। हालांकि शुरुआत में इस बदलाव का हमें अहसास तक नहीं होता और फिर धीरे धीरे हम उन रास्तों को भी पार कर जाते है जो हमारी हदों में नहीं होते। इसी बीच कभी गलती से महसूस हो जाता है कि दिल बार बार समझाने कि कोशिश करता है लेकिन दिमाग़ उसकी एक नहीं सुनता और फिर जब दिल थक हार कर घुटने टेक देता है तब शुरू होता है एक ऐसा सफ़र जिसपर मिलता तो बहुत कम है लेकिन छूट बहुत कुछ जाता है, हमारी आदतें, मुस्कुराहटें, ज़िंदादिली, चीज़ो को देखने का सकारात्मक नजरिया, भावनाएं, सब कुछ धीरे धीरे पीछे छूट जाता है और मिलता क्या है- नकारात्मकता और सब्र का पाठ।

ना ना आप इस सब्र को समझने में गलती कर रहे है… ये वो सब्र नहीं जो हम खुद कर लेते है, “ये तो वो सब्र है जो हमें अपने आप आ जाता है।”

वो कहते है ना कि सब्र करने में और सब्र आ जाने में बहुत फ़र्क होता है।

इस परिस्थिति को समझाने के लिए एक छोटी सी कोशिश-

आज कल रात भर इन पलकों पर नींद लिए जगने लगी हूं मैं,

सपनों को रख कर सिरहाने अब करवटें बदलने लगी हूं मैं,

हां ,जो कभी ना करना था मुझे …ना जाने क्यों अब करने लगी हूं मैं ।।

आज कल अपने आप को छुपा कर रखने लगी हूं मैं,

कोई पढ़ ना ले इन आंखो को मेरी, अब डरने लगी हूं मैं,

ख्वाहिशों को करके बेसहारा अब अकेले ही जीने लगी हूं मैं,

हां ,जो कभी ना करना था मुझे….ना जाने क्यों अब करने लगी हूं मैं।।

खामोशियों की कड़ी अब जोड़ने लगी हूं मैं,

बनाकर सुंदर महल रेत पर, अब खुद ही मिटाने लगी हूं मैं,

कभी फरियाद होती की कोई टूटे तारा तो कुछ मांग लूं ,

लेकिन अब टूटे तारे से मुंह मोड़ने लगी हूं मैं,

हां , जो कभी ना करना था मुझे…ना जाने क्यों अब करने लगी हूं मैं।।

बीच समुंदर फंसी कश्तियां किनारे ना ही आए तो बेहतर है,

क्योंकि अब किनारों पर भी डूबने लगी हूं मैं,

ये सर्द हवाएं ले ना आए कुछ पुरानी यादें , तो खिड़कियों के परदे ठीक करने लगी हूं मैं,

हां ,जो कभी ना करना था मुझे…. ना जाने क्यों अब करने लगी हूं मैं।।

फोटो सौजन्य- गूगल