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कभी हम ख्वाहिशों को छोड़ देते है और कभी ख्वाहिशें हमें छोड़ जाती है..

ख्वाहिशें

आज हम कुछ ऐसी परिस्थितियों पर बात करने जा रहे है जो हमारे ऊपर इस कदर हावी हो जाती है कि हम उनकी ऊंगली पकड़े सब पीछे छोड़ उनके साथ हो लेते है। वैसे सच कहूं तो हमारे सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं होता इसलिए हम कुछ नहीं कर पाते।

तो मैं आपका ज्यादा समय ना लेते हुए आपको उलझनों में न डालते हुए शुरू करती हूं तो चलिए…

भागमभाग के इस दौड़ में हम उस ज़िन्दगी से बहुत दूर निकल आए है  जिसे कभी हमने भरपूर जिया होता है हर लम्हें को पास से छू कर देखा होता है, शोर के साथ अपनी आवाज़ मिलाकर दिल के तार छेड़े होते है, खामोशियों के साथ अपनी अलग ही कोडिंग की होती है।

हवा के झोंके के साथ बहना सीखा होता है, कड़ी धूप में भी अपनी मस्ती के साथ छांव का अहसास किया होता है, रात भर आखों से गुम हुई नींद को छत पर बैठकर तारों से बातें करते हुए आवाज़ लगाई होती है…हर पल को कुछ इस तरह से जिया होता है जैसे वो हमारी ज़िन्दगी का आखिरी पल हो।

लेकिन कहते है ना “जब सिर पर जिम्मेदारियां बढ़ जाती है तो ख्वाहिशें खुदकुशी कर लेती है” बस कुछ यही होता है जब ज़िन्दगी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रही होती है और हम उसी रफ्तार से पीछे छूट रहे होते है…पर फिर भी कभी कभी उस पीछे छूटी ज़िन्दगी को दिल बिल्कुल वैसे ही दोबारा अपनी मुट्ठी में दबाना चाहता है जैसे वो अपनी मां का दिया हुए एक रुपये का सिक्का ये समझ कर दबा लेता है कि ये सिर्फ उसका है और इसपर सिर्फ उसका हक है…फिर कितनी कोशिश करनी होती है उसे समझने के लिए देखिए:-

बहुत समझाया मैंने ख्वाहिशों को फिर भी मुंह उठाए चली आती है।

वो ज़िन्दगी रहती ही नहीं अब उस पते पर आकर वो जिसकी डोर बेल  बजाती है।।

समझती नहीं वो की समझदारी आते ही, मासूमियत अपनी सीट छोड़े जाती है, लफ्ज़ जब तक समझ आते है ठीक से, तब तक बातें बेअसर हो जाती है। समझती ही नहीं वो की अब वो सुकून भरी रात कहां आती है।

जब तक उस लम्हें तक पहुंचते है हम, तब तक ज़िन्दगी दोबारा रफ्तार भरे जाती है। बहुत समझाया मैंने ख्वाहिशों को फिर भी मुंह उठाए चली आती हैं, वो ज़िंदगी रहती ही नहीं अब उस पते पर, आकर वो जिसकी डोर बेल बजाती है।

समझती नहीं वो की सर्दियों की वो गरम धूप अब मेरी ठिठुरन और बढ़ाती है, जब तक ज़िम्मेदारियों से फारिक़ होते है हम, तब तक वो भी अपने घर लौट जाती है।

कैसे समझाऊं इसे कि ये बारिश मेरे कपड़ों की बजाए, अब मेरी रूह को भिगोती है, नहीं समझती वो कि ज़िन्दगी अब एक साबुन सी हो गई है जितना जीने कि कोशिश करो उतना घिसती चली जाती है।

आती है अब भी वो पुरानी यादें, और मेरे कंधे पर सिर रखकर अपना मन हल्का किए जाती है,

जो कुछ छूट गया है पीछे उन सब की लिस्ट मुझे थमा जाती है,

कैसे समझाऊं उसे कि इन सब बातों को दिल पर ना ले,

ये ज़िन्दगी है यूंही कट जाती है,

कभी हम ख्वाहिशों को छोड़ देते है और कभी ख्वाहिशें हमें छोड़ जाती है..।

बहुत समझाया मैंने ख्वाहिशों को फिर भी मुंह उठाए चली आती हैं,

वो ज़िंदगी रहती ही नहीं अब उस पते पर, आकर वो जिसकी डोर बेल बजाती है।

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