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Tag Archives: होलिका दहन

Holika Dahan: प्राचीन त्योहारों की यही खूबसूरती है कि इनके पीछे छुपे पौराणिक कथा हमें अक्सर आकर्षित करते हैं. आईये जाने होलिका दहन क्यों मनाते हैं और क्या है इसका इतिहास. होलिका दहन का पर्व हमें संदेश देता है कि भगवान अपने भक्तों की रक्षा के लिए हमेशा मौजूद रहते हैं.

होलिका दहन, होली त्योहार का पहला दिन, फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसके अगले दिन रंगों से खेलने की परंपरा है जिसे धुलेंडी, धुलंडी और धूलि वगैरह नामों से भी जाना जाता है। होली बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाई जाती है। होलिका दहन (छोटी होली) के अगले दिन पूर्ण हर्षोल्लास के साथ रंग खेलने का परंपरा है और अबीर-गुलाल आदि एक-दूसरे को लगाकर और गले मिलकर इस पर्व को मनाया जाता है।

भारत में मनाए जाने वाले बेहतरीन त्योहारों में से एक है होली। दीवाली की तरह ही इस त्योहार को भी अच्छाई की बुराई पर जीत का त्योहार माना जाता है। हिंदुओं के लिए होली का पौराणिक महत्व भी है। इस त्योहार के मद्देनज़र सबसे प्रचलित है प्रहलाद, होलिका और हिरण्यकश्यप की कहानी। पर होली की सिर्फ यही नहीं बल्कि और भी कई कहानियां प्रचलित है। वैष्णव परंपरा मे होली को, होलिका-प्रहलाद की कहानी का प्रतीकात्मक सूत्र मानते हैं।

होलिका दहन का शास्त्रों के अनुसार नियम

Why do we celebrate Holika Dahan

फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से फाल्गुन पूर्णिमा तक होलाष्टक माना जाता है, जिसमें शुभ कार्य वर्जित रहते हैं। पूर्णिमा के दिन होलिका-दहन किया जाता है। इसके लिए मुख्यतः दो नियम ध्यान में रखने ज़रूरी होते हैं-

पहला, उस दिन ‘भद्रा’ न हो। भद्रा का दूसरा नाम विष्टि करण भी है, जो कि 11 करणों में से एक है। एक करण तिथि के आधे भाग के बराबर होता है।

दूसरी बात, पूर्णिमा प्रदोषकाल-व्यापिनी होनी चाहिए। सरल शब्दों में कहें तो उस दिन सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्तों में पूर्णिमा तिथि होनी चाहिए.

पुराणों के अनुसार दानवराज हिरण्यकश्यप ने जब देखा कि उसका पुत्र प्रह्लाद सिवाय विष्णु भगवान के किसी अन्य को नहीं जपता, तो वह क्रोधित हो उठा और आखिर में उसने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाए, क्योंकि होलिका को वरदान प्राप्त था कि उसे अग्नि नुक़सान नहीं पहुंचा सकती। लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत, होलिका जलकर भस्म हो गई और भक्त प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ। इसी घटना की याद में इस दिन होलिका दहन करने का विधान है। होली का पर्व संदेश देता है कि इसी तरह ईश्वर अपने सभी भक्तों की रक्षा के लिए सदा मौजूद रहते हैं। होली की केवल यही नहीं बल्कि और भी कई कहानियां प्रचलित है।

कामदेव को किया था भस्म 

होली की एक कहानी कामदेव की भी है। पार्वती शिव से विवाह करना चाहती थीं लेकिन तपस्या में लीन शिव का ध्यान उनकी तरफ गया ही नहीं। ऐसे में प्यार के देवता कामदेव आगे आए और उन्होंने शिव पर पुष्प बाण चला दिया। तपस्या भंग होने से शिव को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी और उनके क्रोध की अग्नि में कामदेव भस्म हो गए। कामदेव के भस्म हो जाने पर उनकी पत्नी रति रोने लगीं और शिव से कामदेव को जीवित करने की गुहार लगाई। अगले दिन तक शिव का क्रोध शांत हो चुका था, उन्होंने कामदेव को पुनर्जीवित किया। कामदेव के भस्म होने के दिन होलिका जलाई जाती है और उनके जीवित होने की खुशी में रंगों का त्योहार मनाया जाता है।

महाभारत से जुड़ी कहानी

महाभारत की एक कहानी के अनुसार युधिष्ठर को श्री कृष्ण ने बताया कि एक बार श्री राम के एक पूर्वज रघु, के शासन में एक असुर महिला थी। उसे कोई भी नहीं मार सकता था, क्योंकि वह एक वरदान द्वारा सुरक्षित थी। उसे गली में खेल रहे बच्चों के अलावा किसी से भी डर नहीं था। एक दिन, गुरु वशिष्ठ, ने बताया कि उसे मारा जा सकता है, अगर बच्चे अपने हाथों में लकड़ी के छोटे टुकड़े लेकर, शहर के बाहरी इलाके के पास चले जाएं और सूखी घास के साथ-साथ उनका ढेर लगाकर जला दें। फिर उसके चारों ओर परिक्रमा दें, नृत्य करें, ताली बजाएं, गाना गाएं और नगाड़े बजाएं। फिर ऐसा ही किया गया। इस दिन को एक उत्सव के रूप में मनाया गया, जो बुराई पर एक मासूम मन की जीत का प्रतीक है।

श्रीकृष्ण और पूतना से जुड़ी कहानी

होली का श्रीकृष्ण से गहरा रिश्ता है। जहां इस त्योहार को राधा-कृष्ण के प्रेम के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है। वहीं, पौराणिक कथा के अनुसार जब कंस को श्रीकृष्ण के गोकुल में होने का पता चला तो उसने पूतना नामक राक्षसी को गोकुल में जन्म लेने वाले हर बच्चे को मारने के लिए भेजा। पूतना स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान कराना था। लेकिन कृष्ण उसकी सच्चाई को समझ गए। उन्होंने दुग्धपान करते समय ही पूतना का वध कर दिया। कहा जाता है कि तभी से होली पर्व मनाने की मान्यता शुरू हुई।

ईसा से 300 वर्ष पुराने अभिलेख में भी उल्लेख

विंध्य पर्वतों के निकट स्थित रामगढ़ में मिले एक ईसा से 300 वर्ष पुराने अभिलेख में भी इसका उल्लेख मिलता है। कुछ लोग मानते हैं कि इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी ख़ुशी में गोपियों ने उनके साथ जमकर होली खेली थी।

Holi is played here not with humans but with gods.

रायपुर: छत्तीसगढ़ के दक्षिणी सिरे बस्तर में Holi का पर्व फागुन मड़ई के स्वरूप में बेहद निराला है। इसलिए क्योंकि बस्तर के तीज त्योहारों के सारे रीति रिवाजों में स्थानीय लोक देवी-देवताओं का ही महत्व है। बस्तर की प्रमुख आराध्य देवी मां दंतेश्वरी है और इन्हीं के सम्मान में यहां सारे तीज त्यौहार मनाए जाते हैं। होली का त्योहार यहां फागुन मड़ई के स्वरूप में मनाया जाता है और यह फागुन शुक्ल की षष्ठी से लेकर चौदस तक आयोजित की जाती है।

भव्य रियासतकालीन परम्पराओं के साथ 10 दिन मनाई जाती है होली

10 दिनों तक चलने वाला यह आयोजन वर्तमान को इतिहास से जोड़ता है। फागुन मड़ई के आयोजन की प्रत्येक कड़ियां भव्य रियासतकालीन परम्पराओं के साथ मनाया जाता है। पारंपरिक और ऐतिहासिक महत्व वाले फागुन मड़ई की शुरुआत बसंत पंचमी से हो जाती है। होली के 12 दिनों पहले से मुख्य आयोजन शुरू हो जाता है। दंतेश्वरी माई की पालकी मंदिर से निकलती है और सत्य नारायण मंदिर तक जाती है। वहां पूजा पाठ के बाद वापस मंदिर पहुंचती है। छत्तीसगढ़ समेत ओडिशा से लोग अपने ईष्ट देव का ध्वज और छत्र लेकर पहुंचते हैं। करीब साढ़े सात सौ देवी-देवताओं का यहां फागुन मड़ई में संगम होता है। होली का पर्व माई दंतेश्वरी सभी देवी-देवताओं और मौजूद लोगों के साथ यहां मनाती हैं।

बसंत पंचमी के दिन लगभग 700 साल प्राचीन अष्टधातु से निर्मित, एक त्रिशूल स्तम्भ को दंतेश्वरी मंदिर के मुख्य द्वार के सम्मुख स्थापना की जाती है। इसी दोपहर को आमा मऊड रस्म का निर्वाह किया जाता है जिसके दौरान माईजी का छत्र नगर दर्शन के लिए निकाला जाता है और बस स्टैंड के पास स्थित चौक में देवी को आम के बौर अर्पित किए जाते हैं। इसके बाद मड़ई के कार्यक्रमों का आरंभ मेंडका डोबरा मैदान में स्थित देवकोठी से होता है। जहां पूरे विधि-विधान के साथ देवी का छत्र लाया जाता है। फायर करने के साथ-साथ हर्षोल्लास तथा जयकारे के शोर में छत्र को सलामी दी जाती है।

इस रस्म के अंतर्गत होता है Holika दहन

दंतेश्वरी मंदिर के प्रधान पुजारी हरेंद्र नाथ जिया बताते हैं कि इस दिन दीप प्रज्ज्वलन करते हैं और परम्परानुसार कलश की स्थापना की जाती है। पटेल द्वारा पुजारी के सिर में भंडारीन फूल से फूलपागा (पगड़ी) बांधा जाता है। आमंत्रित देवी-देवताओं और उनके प्रतीकों, देवध्वज और छत्र के साथ माई जी की पालकी पूरी भव्यता के साथ परिभ्रमण के लिए निकाली जाती है। देवी की पालकी नारायण मंदिर लाई जाती है। जहां पूजा-अर्चना तथा विश्राम के बाद सभी वापस दंतेश्वरी माता मंदिर पहुंचते हैं। इसी रात ताड-फलंगा धोनी की रस्म अदा की जाती है। इस रस्म के तहत ताड़ के पत्तों को दंतेश्वरी तालाब के जल से विधि-विधान से धोकर उन्हें मंदिर में रखा जाता है, इन पत्तों का प्रयोग होलिका दहन के लिए होता है।

होलिका दहन की भी खास रिवाज

होलिका दहन की खास परंपरा- दंतेवाड़ा में भी होली रंग-गुलाल से खेली तो जाती है, परंतु यहां दंतेवाड़ा में माई दंतेश्वरी के सम्मान में चलने वाला फागुन मेले के नवे दिन, होलिका दहन से भी जुडी एक अनोखी रस्म हैं। यहां प्रचलित एक मान्यता के अनुसार बस्तर की एक राजकुमारी की याद में, जलाई गई होली की राख और दंतेश्वरी मंदिर की मिट्टी से होली खेली ज़ाती हैं। यह अनोखी रस्म ,जौहर करने वाली राजकुमारी के सम्मान में की जाती है।

सती शिला- दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी हरेंद्र नाथ जिया बताते हैं कि एक राजकुमारी ने अपनी इज्जत बचाने के लिए आग में कुदकर जौहर कर लिया था। राजकुमारी का नाम तो मालूम नहीं पर प्रचलित कथा के अनुसार सैकड़ों सालों पहले बस्तर की एक राजकुमारी को किसी हमलावर ने अगवा करने की कोशिश की थी। राजकुमारी ने अपनी अस्मिता बचाने के लिये मंदिर परिसर में आग जलवाई और मां दंतेश्वरी का नाम लेते हुए आग में कूद गई। उस राजकुमारी की कुर्बानी को यादगार बनाने के लिए उस समय के राजा ने एक सती स्तंभ बनवाया जिसमे स्त्री-पुरुष की बड़ी प्रतिमाये बनी हैं, इस स्तंभ को ही सती शिला कहते हैं। हजार साल पुरानी इस सती शिला के पास ही राजकुमारी की याद में होलिका दहन की जाती हैं। होलिका दहन के लिए 7 तरह की लकड़ियों जिसमें ताड़, बेर, साल, पलाश, बांस, कनियारी और चंदन के पेड़ों की लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है। सजाई गई लकड़ियों के बीच मंदिर का पुजारी केले का पौधे को रोपकर गुप्त पूजा करता है। यह केले का पौधा राजकुमारी का प्रतीक होता है।

फलंगा धोनी रस्म

होलिका दहन से आठ दिन पहले ताड़ पत्तों को दंतेश्वरी तालाब (मेनका डोबरा ) में धोकर भैरव मंदिर में रखा जाता है। इस रस्म को ताड़ फलंगा धोनी कहा जाता है। पास के ग्राम चितालंका के पांच पांडव परिवार के सदस्य ही होलिका दहन करते हैं। दंतेश्वरी मन्दिर में सिंहद्वार के पास इन पांडव परिवार के कुल देवी के नाम पर पांच पांडव मन्दिर भी है।